Wednesday, August 21, 2013

तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला

राजस्थान की धरा वीरो की शौर्य और बलिदान के लिए मशहूर है। यहां के योद्धाओं की गाथाएं आज भी बड़े गर्व से सुनाई जाती हैं। वीरों की वसुंधरा पर कई प्रेम कहानियां भी जो आज भी बहुत प्रचलित हैं। कभी कभी एक दासी के रूप के आगे नतमस्तक हो गया राज तो कभी राजा ने नाराज रानी ऐसी रूठी कि उसका नाम ही रूठी रानी पड़ गया।
 
 
dainikbhaskar.com अपने पाठकों के लिए राजस्थान की प्रेम कहानियां सीरीज में ऐसी ही कई कहानियां लेकर आया है। आज की कड़ी में आपको बता रहे हैं  एक ऐसे प्रेमी की कहानी जिसने अपनी प्रेमिका का अपहरण उसके पिता के सामने उस वक्त कर लिया जब उसका स्वयंवर चल रहा था। 
 
 
 
दिल्ली की राजगद्दी पर बैठने वाले अंतिम हिन्दू शासक और भारत के महान वीर योद्धाओं में शुमार पृथ्वीराज चौहान का नाम कौन नहीं जानता। एक ऐसा वीर योद्धा जिसने अपने बचपन में ही शेर का जबड़ा फाड़ डाला था और जिसने अपनी आंखे खो देने के बावजूद भी मोहम्मद गौरी को मृत्यु का रास्ता दिखा दिया था।
 
 
पृथ्वीराज चौहान एक वीर योद्धा ही नहीं एक महान प्रेमी भी थे जो कन्नौज के महाराज जय चन्द्र की पुत्री संयोगिता से प्रेम करते थे।दोनों में प्रेम था यह सभी जानते हैं और यह भी जानते हैं कि पृथ्वीराज ने संयोगिता का अपहरण कर उनसे प्रेम विवाह किया था लेकिन इस प्रेम कहानी की शुरुआत काफी रोचक है, आइये हम आपको बताते हैं कि  आखिर कैसे शुरू हुई संयोगिता और पृथ्वीराज चौहान की प्रेम कहानी।
 तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला
बात उन दिनों की है जब पृथ्वीराज चौहान अपने नाना और दिल्ली के सम्राट महाराजा अनंगपाल की मृत्यु के बाद दिल्ली की राज गद्दी पर बैठे।गौरतलब है कि महाराजा अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्होंने अपने दामाद अजमेर के महाराज और पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर सिंह चौहान से आग्रह किया कि वे पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित करने की अनुमति प्रदान करें।
महाराजा सोमेश्वर सिंह ने सहमती जता दी और पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित किया गया, काफी राजनीतिक संघर्षों के बाद पृथ्वीराज दिल्ली के सम्राट बने।
 
उसी समय कन्नौज में महाराज जयचंद्र का राज था और उनकी एक खूबसूरत राजकुमारी थी जिसका नाम संयोगिता था।जयचंद्र पृथ्वीराज की यश वृद्धि से ईर्ष्या का भाव रखा करते थे।
उसी समय कन्नौज में महाराज जयचंद्र का राज था और उनकी एक खूबसूरत राजकुमारी थी जिसका नाम संयोगिता था।जयचंद्र पृथ्वीराज की यश वृद्धि से ईर्ष्या का भाव रखा करते थे।
एक दिन कन्नौज में एक चित्रकार पन्नाराय आया जिसके पास देश-दुनिया की कई हस्तियों के चित्र थे और उन्ही चित्रों में एक चित्र था दिल्ली के युवा सम्राट पृथ्वीराज चौहान का।जब कन्नौज की लड़कियों ने पृथ्वीराज के चित्र को देखा तो वे देखते ही रह गईं, हर कोई पृथ्वीराज की सुन्दरता का बखान कर रहीं थीं।
 
पृथ्वीराज की बढाई संयोगिता के कानों तक भी पहुंची और वे पृथ्वीराज के उस चित्र को देखने के लिए लालायित हो उठीं। संयोगिता अपनी सहेलियों के साथ उस चित्रकार के पास पहुंची और चित्र दिखाने को कहा, जैसे संयोगिता ने पृथ्वीराज का चित्र देखा वे मोहित हो गईं और वह चित्र चित्रकार से ले लिया। इधर चित्रकार ने दिल्ली पहुंचकर पृथ्वीराज से भेट की और राजकुमारी संयोगिता का एक चित्र बनाकर उन्हें दिखाया जिसे देखकर पृथ्वीराज के मन में भी संयोगिता के लिए प्रेम उमड़ पडा।
तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला

उन्हीं दिनों महाराजा जयचंद्र ने संयोगियिता के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें विभिन्न राज्यों के राजकुमारों और महाराजाओं को आमंत्रित किया लेकिन ईर्ष्यावश पृथ्वीराज को उन्होंने इस स्वंयवर में आमंत्रित नहीं किया और उनका अपमान करने के उद्देश्य से उनकी एक मूर्ती को द्वारपाल की जगह खडा कर दिया।
जब राजकुमारी संयोगिता वर माला लिए सभा में आईं तो उन्हें अपने पसंद का वर नजर नहीं आया तभी उनकी नजर द्वारपाल की जगह रखी पृथ्वीराज की मूर्ती पर पड़ी और उन्होंने आगे बढ़कर वरमाला उस मूर्ती के गले में डाल दी।

वास्तव में वहां मूर्ती की जगह पृथ्वीराज स्वयं आकर खड़े हो गए थे।संयोगिता द्वारा पृथ्वीराज के गले में वरमाला डालते देख जयचंद्र आग बबूला हो गया और वह तलवार लेकर संयोगिता को मारने के लिए दौड़ा लेकिन पृथ्वीराज संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठाकर वहां से अपने राज्य ले गए।
आगे जयचंद्र ने पृथ्वीराज से बदला लेने के उद्देश्य से मोहम्मद गौरी से मित्रता की और दिल्ली पर आक्रमण कर दिया।पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया लेकिन 18वीं बार मोहम्मद गौरी ने धोखे से उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तपती हुईं सलाखों से उनकी फोड़ दीं।
फिर भी पृथ्वीराज ने हार नहीं मानी और अपने मित्र चन्द्रवरदाई के शब्दों के संकेतों को समझ मोहम्मद गौरी को मार डाला।साथ ही दुश्मनों द्वारा दुर्गति से बचने के लिए चन्द्रवरदाई और पृथ्वीराज ने एक-दूसरे का वध कर दिया।जब संयोगिता को इस बात की जानकारी मिली तो वह एक वीरांगना की भांति सटी हो गई।इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में आज भी यह प्रेमकहानी अमर है। 

तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला

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