Wednesday, August 21, 2013

तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला

राजस्थान की धरा वीरो की शौर्य और बलिदान के लिए मशहूर है। यहां के योद्धाओं की गाथाएं आज भी बड़े गर्व से सुनाई जाती हैं। वीरों की वसुंधरा पर कई प्रेम कहानियां भी जो आज भी बहुत प्रचलित हैं। कभी कभी एक दासी के रूप के आगे नतमस्तक हो गया राज तो कभी राजा ने नाराज रानी ऐसी रूठी कि उसका नाम ही रूठी रानी पड़ गया।
 
 
dainikbhaskar.com अपने पाठकों के लिए राजस्थान की प्रेम कहानियां सीरीज में ऐसी ही कई कहानियां लेकर आया है। आज की कड़ी में आपको बता रहे हैं  एक ऐसे प्रेमी की कहानी जिसने अपनी प्रेमिका का अपहरण उसके पिता के सामने उस वक्त कर लिया जब उसका स्वयंवर चल रहा था। 
 
 
 
दिल्ली की राजगद्दी पर बैठने वाले अंतिम हिन्दू शासक और भारत के महान वीर योद्धाओं में शुमार पृथ्वीराज चौहान का नाम कौन नहीं जानता। एक ऐसा वीर योद्धा जिसने अपने बचपन में ही शेर का जबड़ा फाड़ डाला था और जिसने अपनी आंखे खो देने के बावजूद भी मोहम्मद गौरी को मृत्यु का रास्ता दिखा दिया था।
 
 
पृथ्वीराज चौहान एक वीर योद्धा ही नहीं एक महान प्रेमी भी थे जो कन्नौज के महाराज जय चन्द्र की पुत्री संयोगिता से प्रेम करते थे।दोनों में प्रेम था यह सभी जानते हैं और यह भी जानते हैं कि पृथ्वीराज ने संयोगिता का अपहरण कर उनसे प्रेम विवाह किया था लेकिन इस प्रेम कहानी की शुरुआत काफी रोचक है, आइये हम आपको बताते हैं कि  आखिर कैसे शुरू हुई संयोगिता और पृथ्वीराज चौहान की प्रेम कहानी।
 तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला
बात उन दिनों की है जब पृथ्वीराज चौहान अपने नाना और दिल्ली के सम्राट महाराजा अनंगपाल की मृत्यु के बाद दिल्ली की राज गद्दी पर बैठे।गौरतलब है कि महाराजा अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्होंने अपने दामाद अजमेर के महाराज और पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर सिंह चौहान से आग्रह किया कि वे पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित करने की अनुमति प्रदान करें।
महाराजा सोमेश्वर सिंह ने सहमती जता दी और पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित किया गया, काफी राजनीतिक संघर्षों के बाद पृथ्वीराज दिल्ली के सम्राट बने।
 
उसी समय कन्नौज में महाराज जयचंद्र का राज था और उनकी एक खूबसूरत राजकुमारी थी जिसका नाम संयोगिता था।जयचंद्र पृथ्वीराज की यश वृद्धि से ईर्ष्या का भाव रखा करते थे।
उसी समय कन्नौज में महाराज जयचंद्र का राज था और उनकी एक खूबसूरत राजकुमारी थी जिसका नाम संयोगिता था।जयचंद्र पृथ्वीराज की यश वृद्धि से ईर्ष्या का भाव रखा करते थे।
एक दिन कन्नौज में एक चित्रकार पन्नाराय आया जिसके पास देश-दुनिया की कई हस्तियों के चित्र थे और उन्ही चित्रों में एक चित्र था दिल्ली के युवा सम्राट पृथ्वीराज चौहान का।जब कन्नौज की लड़कियों ने पृथ्वीराज के चित्र को देखा तो वे देखते ही रह गईं, हर कोई पृथ्वीराज की सुन्दरता का बखान कर रहीं थीं।
 
पृथ्वीराज की बढाई संयोगिता के कानों तक भी पहुंची और वे पृथ्वीराज के उस चित्र को देखने के लिए लालायित हो उठीं। संयोगिता अपनी सहेलियों के साथ उस चित्रकार के पास पहुंची और चित्र दिखाने को कहा, जैसे संयोगिता ने पृथ्वीराज का चित्र देखा वे मोहित हो गईं और वह चित्र चित्रकार से ले लिया। इधर चित्रकार ने दिल्ली पहुंचकर पृथ्वीराज से भेट की और राजकुमारी संयोगिता का एक चित्र बनाकर उन्हें दिखाया जिसे देखकर पृथ्वीराज के मन में भी संयोगिता के लिए प्रेम उमड़ पडा।
तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला

उन्हीं दिनों महाराजा जयचंद्र ने संयोगियिता के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें विभिन्न राज्यों के राजकुमारों और महाराजाओं को आमंत्रित किया लेकिन ईर्ष्यावश पृथ्वीराज को उन्होंने इस स्वंयवर में आमंत्रित नहीं किया और उनका अपमान करने के उद्देश्य से उनकी एक मूर्ती को द्वारपाल की जगह खडा कर दिया।
जब राजकुमारी संयोगिता वर माला लिए सभा में आईं तो उन्हें अपने पसंद का वर नजर नहीं आया तभी उनकी नजर द्वारपाल की जगह रखी पृथ्वीराज की मूर्ती पर पड़ी और उन्होंने आगे बढ़कर वरमाला उस मूर्ती के गले में डाल दी।

वास्तव में वहां मूर्ती की जगह पृथ्वीराज स्वयं आकर खड़े हो गए थे।संयोगिता द्वारा पृथ्वीराज के गले में वरमाला डालते देख जयचंद्र आग बबूला हो गया और वह तलवार लेकर संयोगिता को मारने के लिए दौड़ा लेकिन पृथ्वीराज संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठाकर वहां से अपने राज्य ले गए।
आगे जयचंद्र ने पृथ्वीराज से बदला लेने के उद्देश्य से मोहम्मद गौरी से मित्रता की और दिल्ली पर आक्रमण कर दिया।पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया लेकिन 18वीं बार मोहम्मद गौरी ने धोखे से उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तपती हुईं सलाखों से उनकी फोड़ दीं।
फिर भी पृथ्वीराज ने हार नहीं मानी और अपने मित्र चन्द्रवरदाई के शब्दों के संकेतों को समझ मोहम्मद गौरी को मार डाला।साथ ही दुश्मनों द्वारा दुर्गति से बचने के लिए चन्द्रवरदाई और पृथ्वीराज ने एक-दूसरे का वध कर दिया।जब संयोगिता को इस बात की जानकारी मिली तो वह एक वीरांगना की भांति सटी हो गई।इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में आज भी यह प्रेमकहानी अमर है। 

तस्वीर देखते ही पिता के दुश्मन की हो गई दीवानी, मूर्ती को पहना दी वरमाला

Monday, August 19, 2013

सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !

मैं हूं आपका नाहरगढ़ का ऐतिहासिक किला। मेरा निर्माण 1734 में शुरू हुआ था। मुझे जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने बनाया था। बेशक मैं आज इस शहर का प्रहरी या खूबसूरत पर्यटन स्थल बन चुका हूं। बरसात के मौसम में मेरी रवानी देखने लायक रहती है, पर मुझे बनाने के पीछे राजघराने की सुरक्षा सबसे बड़ी वजह थी। एक तरफ जब मुगलकाल का पतन था और दूसरी तरफ मराठा ताकतवर हो रहे थे, तब मेरा निर्माण कराया गया।
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
मुझ तक पहुंचने के वैसे तो तीन रास्ते हैं, लेकिन आमेर महल वाला रास्ता तो जब राजपरिवार जयपुर रहने लगा, तब से इतना कारगर नहीं रहा है। 
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
अलबत्ता कनक घाटी वाला 9 किलोमीटर का रास्ता सबसे ज्यादा व्यस्त रहता है, क्योंकि वो मुझे जयगढ़ से जोड़ता है। 

सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
पर्यटन के लिहाज से कार और बस से मुझ तक पहुंचने का आधुनिक मार्ग तो बहुत बाद में बना है। मेरा सबसे पुराना और सुरक्षित रास्ता शहर के बीच से यानी आज की पुरानी बस्ती से जाता है। 
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
पथरीली राह लेकिन इतनी खूबसूरत और सर्पीली कि मुझ तक पहुंचने पर ये खूबसूरत हिल स्टेशन का अहसास कराती है। इस रास्ते से ज्यादातर पैदल या दुपहिया वाहन चालक रिस्क लेकर चढ़ते रहते हैं। वैसे राजाओं के जमाने में तो यहां से राजपरिवार हाथी, घोड़े और कहार पर सवार होकर जाते थे। वैसे मेरे आंगन में दो और खासियत हैं। पहली, यहां राजपरिवार का खजाना था, दूसरी यहां कैदियों या अपराधियों को नजरबंद किया जाता था। कहते हैं या शहर की मशहूर नृत्यांगना रस कपूर को भी कैद रखा गया था। साथ ही अवध के नवाब वाजिद शाह को भी इसमें शरण मिली थी। वैसे इसका मूल नाम सुदर्शनगढ़ था लेकिन बाघों के निवास की वजह से इसका नाम नाहरगढ़ पड़ा, लेकिन कहा यह भी जाता है कि नाहरसिंह भोमिया का मंदिर बना इसलिए भी इसका नाम नाहरगढ़ हो गया। महाराजा सवाई राम सिंह ने भी 1868 में इसका विकास कराया और महाराजा माधोसिंह मेरे भीतर माधवेंद्र महल बनाया था जिसमें 9 अलग-अलग सेक्शन बने हुए हैं जिसमें रानियों का निवास भी रहा था। 
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
मेरे आंगन में बरसात के पानी पीने लायक बनाए रखने के लिए खूबसूरत बावडिय़ां भी बनाई गईं, जो आज भी पानी को बचाए रखने में सक्षम हैं। 
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
मेरे एक हिस्से में बना ऐतिहासिक पड़ाव दीपावली पर सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र बनता है, जहां से लोग शहर की खूबसूरती को निहारते हैं। यह देखते हैं कि ये शहर अब कहां से कहां तक फैल गया और फल-फूल रहा है। 
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !
लेकिन नाहरगढ़ आज भी यह दोहराता है कि बेशक मैं ऊंचा हूं और मुझ तक पहुंचना थोड़ा दूभर है, लेकिन सच में सुरक्षित हूं। हमेशा एक निगहबान की तरह शहर को सुरक्षा देता रहूंगा। 
सबसे 'बदनाम' नृत्यांगना को जब इस किले में किया गया कैद !

इस गुफा में होती है मां का वध करने वाले ईश्वर की पूजा

 राजस्थान वैसे तो अपनी ऐतिहासिक किलों और धरोहरों के लिए जाना जाता है, लेकिन यहां की भूमि कई ऐसे स्थानों का भी गवाह है जहां देवताओं का वास होता है।
केवल यहां रहने वाले ही नहीं, बल्कि दूर-दराज के लोगों की भी इनमें गहरी आस्था होती है। ऐसी ही एक जगह है कुंभलगढ़ के पास परशुराम महादेव मंदिर। वही परशुराम जिन्होंने गुस्से में आकर मां रेणुका का वध कर दिया था।
कहा जाता है कि हजारों बार इस धरती से क्षत्रियों का नाश करने वाले परशुराम के पास अद्भुत शक्ति यहीं की देन है। उन्होंने यहीं पर गुफा में शिवलिंग के सामने बैठकर कठोर तपस्या की थी।
जिसके बाद उन्हें वो शक्ति मिली जिसका तोड़ किसी अन्य के पास नहीं था। ऐसी भी मान्यता है कि जहां पर यह शिवलिंग स्थापित है उस गुफा को खुद परशुराम ने अपने फरसे से काटकर बनाया था। इस गुफा मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को 500 सीढ़ियों से होकर जाना होता है। 
इस गुफा में होती है मां का वध करने वाले ईश्वर की पूजा
राजस्थान में मेवाड़ और मारवाड़ के लिए यह स्थान किसी तीर्थ से कम नहीं। शायद यही वजह है कि हर साल लोग यहां सावन में भगवान के दर्शन करने आते हैं।
इस दौरान यहां तीन दिनों का मेला भी लगता है। खास बात यह है कि सावन के दिनों में मंदिर के चारों ओर का नजारा इतना मनोरम होता है मानो गुफा में बैठे भगवान परशुराम खुद प्रकृति की गोद में बैठ गए हों।
इस गुफा में होती है मां का वध करने वाले ईश्वर की पूजा
ऐसा बताया जाता है कि समुद्र तल से 3600 फुट ऊंचाई पर बने परशुराम महादेव मंदिर को विष्णु अवतार भगवान परशुराम ने बनाया है।
दंभ और पाखंड से धरती को त्रस्त करने वाले क्षत्रियों का संहार करने के लिए भगवान परशुराम ने इसी पहाड़ी पर स्थित स्वयंभू शिवलिंग के समक्ष बैठकर तपस्या करके शक्ति प्राप्त की थी।
इस गुफा में होती है मां का वध करने वाले ईश्वर की पूजा
परशुराम ने अपने फरसे से पहाड़ी को काटकर एक गुफा का निर्माण किया जिसमें स्वयंभू शिव विराजमान हैं, जो अब परशुराम महादेव के नाम से जाने जाते हैं। यहां पास ही में सादड़ी क्षेत्र में कुछ दूर चलने पर परशुराम महादेव की बगीची है।
कहा जाता है कि यहां पर भी भगवान परशुराम ने शिवजी की आराधना की थी।
फरसे द्वारा काटकर बनाई गई गुफा में स्थित मंदिर में अनेकों मूर्तियां, शंकर, पार्वती और स्वामी कार्तिकेय की बनी हुई हैं। 
इसी गुफा में एक शिला पर एक राक्षस की आकृति बनी हुई है। जिसे परशुराम ने अपने फरशे से मारा था। परशुराम महादेव से लगभग 100 किमी दूर महर्षि जमदगनी की तपोभूमि है, जहां परशुराम का अवतार हुआ।
कुछ ही मील दूर मातृकुंडिया नामक स्थान है जहां परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा से माता रेणुका का वध किया था।
हर साल श्रावण शुक्ल षष्ठी और सप्तमी को यहां विशाल मेला लगता है। पाली नगर से लगभग 35 किमी दूर दक्षिण-पश्चिम दिशा में शाली का पहाडिय़ों में स्थित गुफा मंदिर में जमदगनी ऋषि ने तपस्या की थी।
जलप्रपात के नजदीक गुफा में विराजे स्वयंभू शिवलिंग की प्रथम प्राण प्रतिष्ठा परशुराम के पिता जमदगनी ने ही की थी।
इस गुफा में होती है मां का वध करने वाले ईश्वर की पूजा
शिवलिंग पर एक छिद्र बना हुआ है जिसके बारे में मान्यता है कि इसमें दूध का अभिषेक करने से दूध छिद्र में नहीं जाता जबकि पानी के सैकड़ों घड़े डालने पर भी वह नहीं भरता और पानी शिवलिंग में समा जाता है।

इस भूल भुलैया में दफन है अरबों का खजाना, जो भी गया अंदर नहीं लौटा वापस

क्या महम कस्बे के दक्षिण में सदियों पहले बनी बावड़ी में अरबों रूपए का खजाना छुपा हुआ है? क्या इसमें बिछा सुरंगों का जाल दिल्ली, हिसार और लाहौर तक जाता है? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो आज भी लोगों के लिए रहस्य बने हुए हैं। मुगलकाल की यादों व रहस्यों को अपने अंदर समेटे इस बावड़ी का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर है लेकिन आज तक इस गुत्थी को कोई सुलझा नहीं पाया।

स्थानीय लोगों का मानना है कि इसमें अरबों का खजाना है। ज्ञानी चोर के नाम से मशहूर महम की ये ऐतिहासिक बावड़ी हमें आज भी मुगलकाल के वक्त की याद दिलाती है। फिलहाल ये सरकार व पुरातत्व विभाग की अनदेखी का शिकार है। स्थानीय लोग भी इस बारे में प्रशासन से कई बार गुहार लगा चुके हैं लेकिन नतीजा शिफर ही रहा।

इस भूल भुलैया में दफन है अरबों का खजाना, जो भी गया अंदर नहीं लौटा वापस
बावड़ी में लगे फारसी भाषा के एक अभिलेख के अनुसार इस स्वर्ग के झरने का निर्माण उस समय के मुगल राजा शाहजहां के चैबदार सैद्यू कलाल ने 1069 एएच यानि 1658-59 एडी में करवाया था। यह बावड़ी विशाल है। इसमें एक कुआं है जिस तक पहुंचने के लिए 101 सीढिय़ां उतरनी पड़ती हैं। इसमें कई कमरे भी हैं, जो कि उस जमाने में राहगीरों के आराम के लिए बनवाए गए थे। स्थानीय लोगों की मानें तो इसमें सुरंगों का जाल है जो कि दिल्ली और लाहौर तक जाता है। मगर रहस्य आज भी बरकरार है। लोगों का मानना है कि इसमें अरबों का खजाना है। सरकार द्वारा उचित देखभाल न किए जाने के कारण यह बावड़ी मिट्टी में मिलने को बेताब है। इसके बुर्ज व मंडेर गिर चुके हैं। कुएं के अंदर स्थित पानी काला पड़ चुका है।
पानी के अंदर गंदगी व अन्य तरह की वस्तुएं तैरती हुई देखी जा सकती हैं। सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है। चमगादड़ों ने नीचे जाने वाली सीढिय़ों में अपना डेरा जमा लिया है। लोहे के दरवाजे जाम हो चुके हैं। जगह-जगह से टूटने के कारण छोटी ईंटों का मलबा बावड़ी के अंदर बेतरतीब तरीके से पड़ा है। इस बारे में जब इतिहासकारों से बातचीत की तो उन्होंने भी इसके खस्ताहाल पर चिंता जताई और कहा कि पुरातत्व विभाग के अंतर्गत होने के बावजूद भी इसकी देखभाल नहीं की जा रही है। इस बावड़ी को ज्ञानी चोर की बावड़ी के नाम से जाना जाता है। लोगों का कहना है कि ज्ञानी चोर एक शातिर चोर था जो धनवानों का लूटता और इस बावड़ी में छलांग लगाकर गायब हो जाता और अगले दिन फिर राहजनी के लिए निकल आता था।
इस भूल भुलैया में दफन है अरबों का खजाना, जो भी गया अंदर नहीं लौटा वापस 
लोगों का यह अनुमान है कि ज्ञानी चोर द्वारा लूटा गया सारा धन इसी बावड़ी में मौजूद है।  लोक मान्यताओं के अनुसार ज्ञानी चोर का अरबों का खजाना इसी में दफन है। जो भी इस खजाने की खोज में अंदर गया वो इस बावड़ी की भूलभुलैया में खो गया और खुद एक रहस्य हो गया। लोगों का कहना है कि उस समय का प्रसिद्व ज्ञानी चोर चोरी करने के बाद पुलिस से बचने के लिए यहीं आकर छुपता था। कई जानकार इस जगह को सेनाओं की आरामगाह बताते हैं। उनका कहना है कि रजवाड़ों में आपसी लड़ाई के बाद राजाओं की सेना यहां रात को विश्राम करती थी। छांव व पानी की सुविधा होने के कारण यह जगह उनके लिए सुरक्षित थी।
 
लेकिन इतिहासकारों की माने तो ज्ञानी चोर के चरित्र का जिक्र इतिहास में कहीं नहीं मिलता। अत: खजाना तो दूर की बात है। इतिहासकार डॉ. अमर सिंह ने कहा कि पुराने जमाने में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए बावडिय़ां बनाई जाती थीं। लोगों का कहना है कि इतिहासकारों को चाहिए कि बावड़ी से जुड़ी लोकमान्यताओं को ध्यान में रखकर अपनी खोजबीन फिर नए सिरे से शुरू करें ताकि इस बावड़ी की तमाम सच्चाई जमाने के सामने आ सके। कहने को तो ये बावड़ी पुरातत्व विभाग के अधीन है मगर 352 सालों से कुदरत के थपेड़ों ने इसे कमजोर कर दिया है। जिसके चलते इसकी एक दीवार गिर गई है और दूसरी कब गिर जाए इसका पता नहीं। ग्रामीणों का कहना है कि कई बार प्रशासन से इसकी मरम्मत करवाने की गुहार लगा चुके हैं।
इस भूल भुलैया में दफन है अरबों का खजाना, जो भी गया अंदर नहीं लौटा वापस
ज्ञानी चोर की गुफा के नाम से आसपास के क्षेत्र में लोकप्रिय हो चुकी बावड़ी जमीन में कई फुट नीचे तक बनी हुई है। इसमें एक कुआं है। कुएं के उपरी सिरे पर एक पत्थर लगा हुआ है। जानकारों का कहना है कि इस पर फारसी भाषा में ‘स्वर्ग का झरना' लिखा हुआ है। किवदंती है कि अंग्रेजों के समय में एक बारात सुरंगों के रास्ते दिल्ली जाना चाहती थी। कई दिन बीतने के बाद भी सुरंग में उतरे बाराती न तो दिल्ली ही पहुंच पाए और न ही वापस निकले। किसी अनहोनी घटना के चलते अंग्रेजों ने इन गुफाओं को बंद कर दिया। ये अभी भी बंद पड़ी हैं।
इस भूल भुलैया में दफन है अरबों का खजाना, जो भी गया अंदर नहीं लौटा वापस

यहां आज भी भटकते हैं अश्वत्थामा, पागल हो जाता है देखने वाला!

इंदौर। महाभारत के बारे में जानने वाले लोग अश्वत्थामा के बारे में निश्चित तौर पर जानते होंगे। महाभारत के कई प्रमुख चरित्रों में से एक अश्वत्थामा का वजूद आज भी है। अगर यह पढ़कर आप हैरान हो रहे हैं, तो हम आपको बता दें कि अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने निकले अश्वत्थामा को उनकी एक चूक भारी पड़ी और भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें युगों-युगों तक भटकने का श्राप दे दिया।पिछले लगभग पांच हजार वर्षों से अश्वत्थामा भटक रहे हैं।हम यहां आपको महाभारत काल के अश्वत्थामा से जुड़ी वो खास बातें बताने जा रहे हैं, जिनके बारे में आपको शायद ही मालूम होगा।


अश्वत्थामा महाभारतकाल अर्थात द्वापरयुग में जन्मे थे। उनकी गिनती उस युग के श्रेष्ठ योद्धाओं में होती थी। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र व कुरु वंश के राजगुरु कृपाचार्य के भानजे थे। द्रोणाचार्य ने ही कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या में पारंगत बनाया था।



महाभारत के युद्ध के समय गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा।अश्वत्थामा भी अपने पिता की भांति शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपुण थे। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत के युद्ध के दौरान पांडवों की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था।
पांडव सेना को हतोत्साहित देख श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए युधिष्ठिर से कूटनीति का सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्धभूमि में यह बात फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया है। 
जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी)। यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर किंकर्तव्यविमूढ़ युद्धभूमि में बैठ गए और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।
पिता की मृत्यु ने अश्वत्थामा को विचलित कर दिया। महाभारत युद्ध के पश्चात जब अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया तथा पांडव वंश के समूल नाश के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र चलाया, तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया और युगों-युगों तक भटकते रहने का शाप दिया था।
कहा जाता है कि असीरगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश के ही जबलपुर शहर के गौरीघाट (नर्मदा नदी) के किनारे भी अश्वत्थामा भटकते रहते हैं।  
स्थानीय निवासियों के अनुसार कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की मांग भी करते हैं।
कई लोगों ने इस बारे में अपनी आपबीती भी सुनाई।किसी ने बताया कि उनके दादा ने उन्हें कई बार वहां अश्वत्थामा को देखने का किस्सा सुनाया है। तो किसी ने कहा- जब वे मछली पकडऩे वहां के तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को उनका वहां आना पसंद नहीं आया। गांव के कई बुजुर्गों की मानें तो जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
किले में स्थित तालाब में स्नान करके अश्वत्थामा शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करने जाते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वे उतावली नदी में स्नान करके पूजा के लिए यहां आते हैं। आश्चर्य कि बात यह है कि पहाड़ की चोटी पर बने किले में स्थित यह तालाब बुरहानपुर की तपती गरमी में भी कभी सूखता नहीं। तालाब के थोड़ा आगे गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर है। मंदिर चारो तरफ से खाइयों से घिरा है। किंवदंती के अनुसार इन्हीं खाइयों में से किसी एक में गुप्त रास्ता बना हुआ है, जो खांडव वन (खंडवा जिला) से होता हुआ सीधे इस मंदिर में निकलता है।
इसी रास्ते से होते हुए अश्वत्थामा मंदिर के अंदर आते हैं। भले ही इस मंदिर में कोई रोशनी और आधुनिक व्यवस्था न हो, यहां परिंदा भी पर न मारता हो, लेकिन पूजा लगातार जारी है। शिवलिंग पर प्रतिदिन ताजा फूल एवं गुलाल चढ़ा रहता है।
बुरहानपुर के इतिहासविद डॉ. मोहम्मद शफी (प्रोफेसर, सेवा सदन महाविद्यालय, बुरहानपुर) ने बताया कि बुरहानपुर का इतिहास महाभारतकाल से जुड़ा हुआ है। पहले यह जगह खांडव वन से जुड़ी हुई थी।
किले का नाम असीरगढ़ यहां के एक प्रमुख चरवाहे आसा अहीर के नाम पर रखा गया था। किले को यह स्वरूप 1380 ई. में फारूखी वंश के बादशाहों ने दिया था।
जहां तक अश्वत्थामा की बात है, तो शफी साहब फरमाते हैं कि मैंने बचपन से ही इन किंवदंतियों को सुना है। मानो तो यह सच है न मानो तो झूठ।