Thursday, October 22, 2015

पटना का ऐतिहासिक अगम कुआं। इनसेट में- कुएं में मौजूद पानी।



अगम कुआं' : कभी नहीं सूखता इसका पानी
सम्राट अशोक के वक्त के इस कुएं के रहस्य को जानने की तीन बार कोशिशें की जा चुकी हैं। सबसे पहले 1932 में, दूसरी बार 1962 में और तीसरी बार 1995 में, मगर आज भी ये एक पहेली बना हुआ है। कहा जाता है कि कई बार भयंकर सूखा पड़ने के बावजूद इसका पानी कभी नहीं सूखा। न ही बाढ़ आने पर इसके पानी में कोई खास बढ़ोतरी हुई। कुएं की एक और खासियत ये है कि इसके पानी का रंग बदलता रहता है। इसमें पानी का लेवेल गर्मी में अपने सामान्य लेवेल से सिर्फ एक से डेढ़ फीट नीचे जाता है। वहीं बारिश के दिनों में भी पानी का लेवेल सामान्य से केवल एक से डेढ़ फीट तक ऊपर आता है।
अजीबो-गरीब तर्क
कुएं के कभी न सूखने के पीछे ये तर्क दिया जाता है कि यह पश्चिम बंगाल स्थित गंगा सागर से जुड़ा है। एक बार एक अंग्रेज की छड़ी गंगा सागर में गिर गई थी जो बहते-बहते पाटलिपुत्र स्थित इस कुएं के ऊपर आकर तैर रही थी, आज भी वो छड़ी कोलकाता के म्यूजियम में रखी हुई है।
सम्राट अशोक ने इसी में फेंकवाई थी अपने 99 भाइयों की लाशें
यह कुआं खुद में कई सवाल भी समेटे है। मसलन- आखिर क्यों सम्राट अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर उनकी लाशें इस कुएं में डलवाईं? कहा जाता है कि अशोक ने राजा बनने के लिए अपने 99 भाइयों की हत्या करवा दी थी और उनकी लाशें इसी कुएं में फेंकवा दी थीं। अशोक ने अगम कुएं को विरोधियों की हत्या कर लाश फेंकने के लिए ही बनवाया था। अशोक के समय भारत आए चीनी दार्शनिकों ने अपनी किताबों में इस कुएं का जिक्र इसी रूप में किया है।
लोग अगम कुएं पर चढ़ावा चढ़ाते हैं, इसे रोकने के लिए कुएं के चारो ओर जालियां लगा दी गई हैं।

कुएं के तहखाने में छिपा है अशोक का खजाना
दूसरा अहम सवाल ये है कि क्या वाकई इस कुएं में सम्राट अशोक का खजाना दबा है? ऐसा कहा जाता है कि अगम कुएं के भीतर  नौ और उसके बाद भी कई छोटे-छोटे कुएं हैं। सबसे अंत में एक तहखाना है जहां अशोक अपना खजाना रखता था। उसे खजाना गृह कहा जाता था। अशोक के साम्राज्य कुम्हरार से ये जुड़ा हुआ था, जहां से सुरंग के जरिये यहां खजाना रखा जाता था।  
...तो इसलिए पड़ा ये नाम 
इस कुएं की गहराई नापने की अब तक तीन कोशिशें हुई हैं, जिसके बाद पुरातत्व विभाग इस नतीजे पर पहुंचा है कि इसकी गहराई लगभग 105 फीट है। चूंकि 105 फीट की गहराई सम्राट अशोक के काल में बहुत ज्यादा थी और उस जमाने में सिर्फ 20-25 फीट की खुदाई पर ही पानी निकल आता था, इसलिए इस कुएं का नाम अगम कुआं पड़ा।अगम का मतलब होता है पाताल से जुड़ा हुआ। 
 
तीन कोशिशों के बाद भी एक पहेली
कुएं के रहस्य को जानने के लिए सबसे पहले 1932 में अंग्रेजी हुकूमत ने प्रयास किया था, लेकिन कई फीट पानी बाहर निकालने के बाद भी इसकी गहराई का पता नहीं चल पाया। कहा जाता है कि पानी निकाले जाने से आस-पास के इलाकों में बाढ़ के हालात पैदा हो गए थे, लेकिन कुएं की गहराई मालूम नहीं हो सकी। सबसे हैरानी की बात यह रही कि कुएं का पानी फिर उसी दिन अपने पुराने स्तर पर आ गया। दूसरी बार 1962 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कुएं की गहराई जानने 
की कोशिश की और दिसंबर 1995 में तीसरी बार पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने। मगर इसका रहस्य अब भी पूरी तरह खुल नहीं पाया है।

अगम कुएं के पास ही शीतला माता का मंदिर भी है। ऐसी मान्यता है कि पहले कुएं की पूजा की जाती है, उसके बाद शीतला माता की।


धार्मिक महत्व भी है अगम कुएं का
'अगम कुआं' लोगों की आस्था का भी केन्द्र है। लोग इस कुएं की पूजा करते हैं और अपनी समस्याओं को दूर करने और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए यहां पहुंचते हैं। इस कुएं का पानी पवित्र माना जाता है। लोग इसका इस्तेमाल कुष्ठ रोग, चिकन पॉक्स जैसी बीमारियों को दूर करने के लिए करते हैं। कुएं के पास ही शीतला माता का मंदिर भी है। ऐसी मान्यता है कि पहले कुएं की पूजा की जाती है, उसके बाद शीतला माता की। लोग कुएं पर चढ़ावा भी चढ़ाते हैं। हालांकि इसे रोकने के लिए अब कुएं के चारो ओर जालियां लगा दी गई हैं। शीतला माता की पूजा के लिए इसी कुएं के जल का इस्तेमाल किया जाता है। 
 
ब्रिटिश ने लगाया था इसका पता 
1902-03 में ब्रिटिश खोजकर्ता लॉरेंस वाडेल ने इस कुएं का पता लगाया था। वाडेल के मुताबिक करीब 750 साल पहले जब कभी कोई मुस्लिम अधिकारी पटना में आता था, तो सबसे पहले सोने और चांदी के सिक्के इस कुएं में डालता था। ऐसा भी कहा जाता है कि जब कोई स्थानीय चोर-डकैत अपने काम में सफल होता था तो इस कुएं 
में कुछ पैसे डाल देता था। ऐसा बताया जाता है कि जब इस कुएं के पास वाडेल पहुंचे तो वहां कई मूर्तियां मिली थीं। 

बिहार की राजधानी पटना आज ऐसी दिखती है।

पटना हरयंका, नंदा, मौर्य, शुंगा, गुप्त और पाला साम्राज्यों का हिस्सा रहा है। भारत यात्रा पर आए चीन के प्रसिद्ध Philosopher फाहियान ने इसे 'पा-लिन-फोऊ' नाम दिया था। इसे पहले पाटलिपुत्र, पाटलिग्राम, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अजीमाबाद नामों से भी जाना जाता था। 
 
> कहा जाता है कि पाटलिपुत्र की स्थापना अजातशत्रु ने की थी। अजातशत्रु ने लिच्छवियों के आक्रमण से इसकी सुरक्षा के कुछ इंतजाम भी किए थे। वैसे कुदरती तौर पर गंगा नदी तीन सहायक नदियों घाघरा, सोन और गंडक से मिलकर इसकी सुरक्षा करती है। 
 
> लोककथाओं में राजा पत्रक को इस शहर का जनक माना जाता है। उनकी रानी पाटलि ने जब बेटे को जन्म दिया था, तो खुश होकर राजा ने जादू से इस नगर को बनाया था। इसी वजह से इसका नाम पाटलि+पुत्र = पाटलिपुत्र पड़ा। 
 
> दूसरी ओर, कुछ लोग कहते हैं कि पटन देवी (एक हिन्दू देवी) के नाम पर इसका नाम पटना पड़ा, तो कुछ कहते हैं कि 'पाटली' एक पेड़ की प्रजाति है, जो सिर्फ पटना में पाई जाती है, उसी पर इसका नाम पड़ा। बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि पटना का पाटलिपुत्र से एक अटूट संबंध रहा है। 

> 1912 में बंगाल विभाजन के बाद पटना, उड़ीसा और बिहार की राजधानी बना। 1935 में उड़ीसा, बिहार से अलग होकर एक स्वतंत्र राज्य बन गया। पटना बिहार की 
राजधानी बना रहा।

> देश आजाद होने के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। 2000 में झारखंड के अलग होने के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया।

> पटना से कई विद्वान जुड़े रहे हैं। कहा जाता है कि आर्यभट्ट, पाणिनी, चाणक्य, कालीदास और कामसूत्र के लेखक महर्षि वात्स्यायन का जन्म यहीं हुआ था।

Friday, October 16, 2015

कामाख्या पीठ


कामाख्या शक्तिपीठ गुवाहाटी (असम) के पश्चिम में 8 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर है। माता के सभी शक्तिपीठों में से कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम कहा जाता है। माता सती के प्रति भगवान शिव का मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51 भाग किए थे। जिस-जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वे शक्तिपीठ कहलाए। कहा जाता है कि यहां पर माता सती का गुह्वा मतलब योनि भाग गिरा था, उसे से कामाख्या महापीठ की उत्पत्ति हुई। कहा जाता है यहां देवी का योनि भाग होने की वजह से यहां माता रजस्वला होती हैं।
कामाख्या शक्तिपीठ चमत्कारों और रोचक तथ्यों से भरा हुआ है, आज हम अपको कामाख्या शक्तिपीठ से जुड़े ऐसे ही 6 रोचक तथ्य बताने जा रहे हैं-

मंदिर में नहीं है देवी की मूर्ति

इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है, यहां पर देवी के योनि भाग की ही पूजा की जाती है। मंदिर में एक कुंड-सा है, जो हमेशा फूलों से ढ़का रहता है। इस जगह से पास में ही एक मंदिर है जहां पर देवी की मूर्ति स्थापित है। यह पीठ माता के सभी पीठों में से माहापीठ माना जाता है।










कामाख्या मंदिर

कामाख्या शक्तिपीठ

यहां माता हर साल होती हैं रजस्वला

इस पीठ के बारे में एक बहुत ही रोचक कथा प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस जगह पर माता का योनि भाग गिरा था, जिस वजह से यहां पर माता हर साल तीन दिनों के लिए रजस्वला होती हैं। इस दौरान मंदिर को बंद कर दिया जाता है। तीन दिनों के बाद मंदिर को बहुत ही उत्साह के साथ खोला जाता है।

प्रसाद के रूप में भक्तों को दिया जाता है गीला वस्त्र

यहां पर भक्तों को प्रसाद के रूप में एक गीला कपड़ा दिया जाता है, जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं। कहा जाता है कि देवी के रजस्वला होने के दौरान प्रतिमा के आसपास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है। बाद में इसी वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।

कामाख्या मंदिर 
कामाख्या मंदिर

लुप्त हो चुका है मूल मंदिर

कथा के अनुसार, एक समय पर नरक नाम का एक असुर था। नरक ने कामाख्या देवी के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा। देवी उससे विवाह नहीं करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने नरक के सामने एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि अगर नरक एक रात में ही इस जगह पर मार्ग, घाट, मंदिर आदि सब बनवा दे, तो देवी उससे विवाह कर लेंगी। नरक ने शर्त पूरी करने के लिए भगवान विश्वकर्मा को बुलाया और काम शुरू कर दिया। काम पूरा होता देख देवी ने रात खत्म होने से पहले ही मुर्गे के द्वारा सुबह होने की सूचना दिलवा दी और विवाह नहीं हो पाया। आज भी पर्वत के नीचे से ऊपर जाने वाले मार्ग को नरकासुर मार्ग के नाम से जाना जाता है और जिस मंदिर में माता की मूर्ति स्थापित है, उसे कामदेव मंदिर कहा जाता है। मंदिर के संबंध में कहा जाता है कि नरकासुर के अत्याचारों से कामाख्या के दर्शन में कई परेशानियां उत्पन्न होने लगी थीं, जिस बात से क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ठ ने इस जगह को श्राप दे दिया। कहा जाता है कि श्राप के कारण समय के साथ कामाख्या पीठ लुप्त हो गया।
 
 

16वीं शताब्दी से जुड़ा है आज के मंदिर का इतिहास

मान्यताओं के अनुसार, कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी में कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे, जिसमें कूचविहार रियासत के राजा विश्वसिंह जीत गए। युद्ध में विश्व सिंह के भाई खो गए थे और अपने भाई को ढूंढने के लिए वे घूमते-घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए। वहां पर उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी। उस महिला ने राजा को इस जगह के महत्व और यहां कामाख्या पीठ होने के बारे में बताया। यह बात जानकर राजा ने इस जगह की खुदाई शुरु करवाई। खुदाई करने पर कामदेव का बनवाए हुए मूल मंदिर का निचला हिस्सा बाहर निकला। राजा ने उसी मंदिर के ऊपर नया मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि 1564 में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिर को तोड़ दिया था। जिसे अगले साल राजा विश्वसिंह के पुत्र नरनारायण ने फिर से बनवाया।